धर्म/अध्यात्म (Rashtra Pratham): मनुष्य का लक्ष्य है एक स्थायी सत्ता, जिसके नहीं होने से कर्म स्थायी नहीं हो सकता है। कोई मनुष्य यदि कुछ स्थायी करना चाहता है, कोई नई चीज बनाना चाहता है और समाज का कल्याण करना चाहता है तथा मनुष्य के रूप में जीवन में जो चाहा है, उसे अगर प्रतिष्ठित करना चाहता है, तब उसे आध्यात्मिक जीवन में प्रतिष्ठित होना ही होगा। भक्ति और प्रेरणा को छोड़ कर मनुष्य कुछ भी कर नहीं सकता। जीवन का वास्तविक लक्ष्य आध्यात्मिक हुए बिना नहीं पाया जा सकता। और इसके लिए भक्ति चाहिए। भक्ति के लिए कर्म करना पड़ेगा।
अगर आप इस दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो परमात्मा आपकी मदद जरूर करेंगे।अभी भी देखा जाता है कि साधना से, कर्म से, मनुष्य के भीतर आध्यात्मिक प्रेरणा और भक्ति जग जाती है। अनेक लोग सम्भवत: सोच सकते हैं कि बिना ज्ञान, कर्म साधना किए उनकी भक्ति कैसे जगी? तो इसके उत्तर में मैं कहूंगा- यह उनके पूर्व-कृत कर्म की प्रतिक्रिया है। कभी अर्थात पूर्वजन्म में उसने जो ज्ञान और कर्म की साधना की थी, उसके फल के रूप में इस जीवन में ज्ञान और कर्मसाधना बिना किए ही उसे भक्ति मिली है। अनेक लोगों की यह धारणा है कि भक्ति के साथ ज्ञान और कर्म का कोई सम्पर्क नहीं है, किन्तु इस प्रकार सोचना बिल्कुल गलत है। भक्ति कभी भी ज्ञान वर्जित या कर्म वर्जित नहीं हो सकती।भक्ति, ज्ञान और कर्म का समन्वय है- इसलिए भक्ति में ज्ञान और कर्म की पराकाष्ठा रहनी ही होगी। कोई यदि सोचे कि चौबीस घंटा दरवाजा बंद कर प्राणायाम करता रहेगा, तो इस स्थिति में वह अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर पाएगा, क्योंकि उसके भीतर जड़ता है, कर्म का अभाव है; और भक्ति तो ज्ञान और कर्म का समन्वय है।
इसलिए कोई यदि चौबीस घंटा जप-तप ही किए जाए, तो वह इष्ट को नहीं पा सकता। वह कर्म का गुलाम हो जाएगा, उसका स्वभाव यंत्र के जैसा हो उठेगा। यंत्र भी खूब खटता है, खूब घूमता-फिरता है, किन्तु क्या इसीलिए उस यंत्र के द्वारा ज्ञान और भक्ति साधना सम्भव है? ज्ञान और कर्म ठीक गंगा-यमुना जैसे हैं, इन दोनों के मिल जाने से ही जीवन की सार्थकता उपलब्ध होती है। जिसके भीतर भक्ति जगी है, उसे उपयुक्त कार्य में रत होना ही होगा, काम उसे चुन लेना ही होगा। यदि वह स्वयं नहीं समझ सके कि उसे क्या कार्य करना है, वह दूसरे से परामर्श लेगा, किन्तु सब समय उसे कार्य करते जाना होगा। चूंकि उसमें जो भक्ति जगी है, उसके अन्दर आध्यात्मिक प्रेरणा जगी है, जिस कार्य में वह हाथ लगाएगा, उसमें वह सफलता पाएगा ही। कार्य में कूद जाने से, कार्य में उतर पड़ने से, देखोगे कि तुम सब कुछ कर सकते हो। कभी नहीं सोचो कि क्या मैं कर सकूंगा?
कार्य में उतरो, उसे अवश्य, अवश्य ही कर सकोगे। जब समाज के कार्य में लग जाओगे, तब समाज तुम्हारी कभी अवहेलना नहीं कर सकता, समाज की अग्रगति के माध्यम से ही जीवन को परिपूर्णता मिलेगी।जड़ जगत के संवेग या आकर्षण से मानस जगत् का संवेग या आकर्षण बहुत अधिक शक्तिशाली है। और आध्यात्मिक जगत का संवेग या आकर्षण और भी अधिक शक्तिशाली है। मनुष्य यदि संदेह से सोचे कि क्या मैं कर सकूंगा, मेरे द्वारा क्या कार्य होगा- इस तरह यदि वह कार्य करना आरम्भ करे, तो उसके द्वारा कभी भी कार्य नहीं हो सकेगा। साहस के साथ अपने लक्ष्य पर ध्यान रख, आध्यात्मिक प्रेरणा के द्वारा सराबोर होकर यदि वह कार्य आरम्भ करे, तो सफलता उसे मिलेगी ही। कोई भी कार्य मनुष्य से बड़ा नहीं है।
पृथ्वी पर, वास्तविक जगत में, व्यावहारिक जगत में, जो कुछ हम लोग पाते हैं, जो कुछ हमारी पकड़ में आता है- उनमें सबसे बड़ा और शक्तिशाली मनुष्य है। सभी कार्यों से मनुष्य बड़ा है। केवल कार्य की सिद्धि या असिद्धि के ऊपर निर्भर कर; पवित्रता या अपवित्रता की दीवार बना हम लोग मनुष्य के मान का निर्धारण करते हैं। मनुष्य के साथ कार्य का इतना ही सम्बंध है। मनुष्य जो कार्य करता है, वह यदि सिद्ध हो, पवित्र हो, बृहत् हो, तो हम लोग महान मान कर स्वीकार करते हैं।
इसलिए किसी कार्य को करने के पहले विवेचक मन से जब सोच कर देखोगे कि कार्य सत् है, तो उसी मुहूर्त में कर्म समुद्र में कूद पड़ोगे। तुम्हारी जय होनी ही है।धारणत: मनुष्य जिस कार्य में हाथ लगाने लगता है, वह सिद्ध है या असिद्ध, पवित्र है या अपवित्र, यह विचार कर नहीं देखता है। सोचता है, कार्य वह कर सकेगा या नहीं! जब वह देखेगा कि यह कर्म कल्याणप्रद है, तभी उसे कूद पड़ना होगा; क्योंकि जिस सत् बुद्धि ने प्रेरणा दी है, उसके आधार हैं परमपुरुष। इसलिए उस कार्य को भलीभांति करने की शक्ति वे निश्चय ही देंगे।