शिक्षा को राजनीति का अखाड़ा न बनाएं

राष्ट्र भक्त (Rashtra Pratham) :- देशभर के विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम में नियमित अंतराल पर बदलाव होते रहते हैं। विभाग विशेष की अनुशंसा पर विद्या परिषद (अकेडमिक काउंसिल) बदलाव को स्वीकार करते हुए मंजूरी देती है। नियमानुसार साल में दो बार विद्या परिषद की बैठक आवश्यक है। मोटे तौर पर विश्वविद्लाय दो या तीन साल में अपने पाठ्यक्रमों में बदलाव करते हैं। इसके पीछे उद्देश्य ये रहता है कि छात्रों में नई प्रवृत्तियों से परिचित करवाया जा सके। इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि किसी विषय में कोई नया शोघ हुआ हो तो उससे छात्रों का परिचय हो सके। अगर साहित्य से जुड़े विषयों की बात करें तो लेखन की नई प्रवृत्तियों से छात्रों का परिचय तभी संभव होता है जब पाठ्यक्रम में उस नई प्रवृत्ति को शामिल किया जाए।

अभी दिल्ली विश्‍वविद्यालय ने अंग्रेजी के पाठ्यक्रम में बदलाव किया है और महाश्वेता देवी समेत कुछ अन्य लेखकों की रचनाओं को हटा कर दूसरे लेखकों की रचनाओं को स्थान दिया गया है। इसपर विवाद खड़ा किया जा रहा है। विवाद की वजह रचना नहीं बल्कि उससे इतर है।इसको विचारधारा के आधार पर विवादित करने का प्रयास आरंभ हो गया है। कुछ वामपंथी विचारधारा के समर्थक लेखक और स्तंभकार इसको केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़कर देखने लगे हैं। उनको लगता है कि महाश्वेता देवी की रचना को पाठ्यक्रम से हटाने के पीछे हिंदुत्ववादी विचारधारा के लोग हैं। जबकि ये एक सामान्य प्रक्रिया है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से महाश्वेता देवी की कहानी द्रोपदी को हटाया गया है। इसके बारे में विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने अपना पक्ष रखा है। ये कहानी एक आदिवासी महिला और उसके संघर्ष के इर्द-गिर्द घूमती है। महाश्वेता देवी की रचना को पाठ्यक्रम से हटाने के फैसले की आलोचना करनेवाले ये तर्क भी दे रहे हैं कि महाश्वेता जी ने जीवन भर समाज के हाशिए के लोगों के लिए संघर्ष किया। उन्होंने उन लोगों के हितों की रक्षा के लिए आंदोलनों में भी हिस्सेदारी की। यह कहानी भी उसी वर्ग पर लिखी गई है, इसलिए इसको हटाना अनुचित है । यह ठीक बात है कि उन्होंने समाज के वंचित वर्गों के लिए संघर्ष किया, पर अब समय बदल गया है। क्या पाठ्यक्रम को बदलते हुए समय के साथ नहीं बदला जाना चाहिए।