राजा महेन्द्र प्रताप सिंह
(1 दिसम्बर 1886 – 29 अप्रैल 1979)
भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार, लेखक, क्रांतिकारी और समाज सुधारक थे। वे ‘आर्यन पेशवा’ के नाम से प्रसिद्ध थे।
इतिहास के झरोखों से (Rashtra Pratham): राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म मुरसान नरेश राजा बहादुर घनश्याम सिंह के यहाँ 1 दिसम्बर सन 1886 ई. को हुआ था। राजा घनश्याम सिंह जी के तीन पुत्र थे, दत्तप्रसाद सिंह, बल्देव सिंह और खड़गसिंह, जिनमें सबसे बड़े दत्तप्रसाद सिंह राजा घनश्याम सिंह के उपरान्त मुरसान की गद्दी पर बैठे और बल्देव सिंह बल्देवगढ़ की जागीर के मालिक बन गए। खड़गसिंह जो सबसे छोटे थे वही हमारे चरित नायक राजा महेन्द्र प्रताप जी हैं। मुरसान राज्य से हाथरस गोद आने पर उनका नाम खंड़गसिंह से महेन्द्र प्रताप सिंह हो गया था, मानो खड़ग उनके व्यक्तित्व में साकार प्रताप बनकर ही एकीभूत हो गई हो।
जिंद रियासत के राजा की राजकुमारी से संगरूर में विवाह हुआ। दो स्पेशल ट्रेन बारात लेकर गई। बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ। विवाह के बाद जब कभी महेन्द्र प्रताप ससुराल जाते तो उन्हें 11 तोपों की सलामी दी जाती। स्टेशन पर सभी अफसर स्वागत करते। रात को दरबार गता और नृत्य-गान चलता जिसमें कभी-कभी रानी भी भाग लेती। उनके 1909 में पुत्री हुई-भक्ति, 1913 में पुत्र हुआ-प्रेम। देश-विदेश की खूब यात्राएँ कीं। 1906 में जिंद के महाराजा की इच्छा के विरुद्ध राजा महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया और वहाँ से स्वदेशी के रंग में रंगकर लौटे।
1909 में वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की जो तकनीकी शिक्षा के लिए भारत में प्रथम केन्द्र था। मदनमोहन मालवीय इसके उद्धाटन समारोह में उपस्थित रहे। ट्रस्ट का निर्माण हुआ-अपने पांच गाँव, वृन्दावन का राजमहल और चल संपत्ति का दान दिया।
उनकी दृष्टि विशाल थी। वे जाति, वर्ग, रंग, देश आदि के द्वारा मानवता को विभक्त करना घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे। ब्राह्मण-भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष में नहीं थे। वृन्दावन में ही एक विशाल फलवाले उद्यान को जो 80 एकड़ में था, 1911 में आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश को दान में दे दिया। जिसमें आर्य समाज गुरुकुल है और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय भी है।
प्रथम विश्वयुद्ध से लाभ उठाकर भारत को आजादी दिलवाने के पक्के इरादे से वे विदेश गये। इसके पहले ‘निर्बल सेवक’ समाचार-पत्र देहरादून से राजा साहेब निकालते थे। उसमें जर्मन के पक्ष में लिखे लेख के कारण उन पर 500 रुपये का दण्ड किया गया जिसे उन्होंने भर तो दिया लेकिन देश को आजाद कराने की उनकी इच्छा प्रबलतम हो गई। विदेश जाने के लिए पासपोर्ट नहीं मिला। मैसर्स थौमस कुक एण्ड संस के मालिक बिना पासपोर्ट के अपनी कम्पनी के पी. एण्ड ओ स्टीमर द्वारा इंगलैण्ड राजा महेन्द्र प्रताप और स्वामी श्रद्धानंद के ज्येष्ठ पुत्र हरिचंद्र को ले गया। उसके बाद जर्मनी के शसक कैसर से भेंट की। उन्हें आजादी में हर संभव सहाय देने का वचन दिया। वहाँ से वह अफगानिस्तान गये। बुडापेस्ट, बल्गारिया, टर्की होकर हैरत पहुँचे।
अफगान के बादशाह से मुलाकात की और वहीं से 1 दिसम्बर 1915 में काबुल से भारत के लिए अस्थाई सरकार की घोषणा की जिसके राष्ट्रपति स्वयं तथा प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ बने। स्वर्ण-पट्टी पर लिखा सूचनापत्र रूस भेजा गया। अफगानिस्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया तभी वे रूस गये और लेनिन से मिले। परंतु लेनिन ने कोई सहायता नहीं की। 1920 से 1946 विदेशों में भ्रमण करते रहे। विश्व मैत्री संघ की स्थापना की। 1946 में भारत लौटे। सरदार पटेल की बेटी मणिबेन उनको लेने कलकत्ता हवाई अड्डे गईं। वे संसद-सदस्य भी रहे।