भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक – एलेन ओक्टेवियन ह्यूम
(६ जून १८२९ – ३१ जुलाई १९१२)
इतिहास के झरोखों से (Rashtra Pratham): ए ओ ह्यूम का जन्म 1829 को इंग्लैंड में हुआ था। अपने अंग्रेजी शासन की प्रतिष्ठित बंगाल सिविल सेवा में चयनित होकर 1849 में अधिकारी बनकर सर्वप्रथम उत्तर प्रान्त के जनपद इटावा में आये। ए. ओ. ह्यूम ब्रिटिश कालीन भारत में सिविल सेवा के अधिकारी एवं राजनैतिक सुधारक थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक थे। ह्यूम प्रशासनिक अधिकारी और राजनैतिक सुधारक के अलावा माहिर पक्षी-विज्ञानी भी थे, इस क्षेत्र में उनके कार्यों की वजह से उन्हें ‘भारतीय पक्षीविज्ञान का पितामह’ कहा जाता है।
1857 के प्रथम विद्रोह के सममय वे इटावा के कलक्टर थे। कांग्रेस संस्थापक ए.ओ.ह्यूम को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 17 जून 1857 को उत्तर प्रदेश के इटावा मे जंगे आजादी के सिपाहियों से जान बचाने के लिये साड़ी पहन कर ग्रामीण महिला का वेष धारण कर भागना पड़ा था। आजादी के संघर्ष के दरम्यान ह्यूम को मारने के लिये सेनानियों ने पूरी तरह से घेर लिया था तब ह्यूम ने साड़ी पहन कर अपनी पहचान छुपाई थी। ए.ओ.ह्यूम तब इटावा के कलक्टर हुआ करते थे।
इटावा के हजार साल और इतिहास के झरोखे में इटावा नाम ऐतिहासिक पुस्तकों में ह्यूम की बारे में इन अहम बातों का उल्लेख किया गया है। सैनिकों ने ह्यूम और उनके परिवार को मार डालने की योजना बनाई जिसकी भनक लगते ही 17 जून 1857 को ह्यूम महिला के वेश में गुप्त ढंग से इटावा से निकल कर बढ़पुरा पहुंच गये और सात दिनों तक बढ़पुरा में छिपे रहे। एलन आक्टेवियन ह्यूम यानि ए.ओ.ह्यूम को वैसे तो आम तौर सिर्फ काग्रेंस के संस्थापक के तौर पर जाना और पहचाना जाता है।
ह्यूम को उस अंग्रेज अफसर के रूप में माना जाता है जिसने अपने समय से पहले बहुत आगे के बारे में न केवल सोचा बल्कि उस पर काम भी किया। वैसे तो इटावा का वजूद ह्यूम के यहं आने से पहले ही हो गया था लेकिन ह्यूम ने जो कुछ दिया उसके कोई दूसरी मिसाल देखने को कहीं भी नहीं मिलती।
ह्यूम भारतवासियों के सच्चे मित्र थे। उन्होंने कांग्रेस के सिद्धांतों का प्रचार अपने लेखों और व्याख्यानों द्वारा किया। इनका प्रभाव इंग्लैंड की जनता पर संतोषजनक पड़ा। वायसराय लार्ड डफरिन के शासनकाल में ही ब्रिटिश सरकार कांग्रेस को शंका की दृष्टि से देखने लगी। ह्यूम साहब को भी भारत छोड़ने की राजाज्ञा मिली।
ह्यूम के मित्रों में दादा भाई नौरोजी, सर सुरेंद्रनाथ बनर्जी, सर फीरोज शाह मेहता, श्री गोपाल कृष्ण गोखले, श्री व्योमेशचंद्र बनर्जी, श्री बालगंगाधर तिलक आदि थे। इनके द्वारा शासन तथा समाज में अनेक सुधार हुए। उन्होंने अपने विश्राम के दिनों में भारतवासियों को अधिक से अधिक अंग्रेजी सरकार से दिलाने की कोशिश की। इस संबंध में उनको कई बार इंग्लैंड भी जाना पड़ा।
इंग्लैंड में ह्यूम साहब ने अंग्रेजों को यह बताया कि भारतवासी अब इस योग्य हैं कि वे अपने देश का प्रबंध स्वयं कर सकते हैं। उनको अंग्रेजों की भाँति सब प्रकार के अधिकार प्राप्त होने चाहिए और सरकारी नौकरियों में भी समानता होना आवश्यक है। जब तक ऐसा न होगा, वे चैन से न बैठेंगे। इंग्लैंड की सरकार ने ह्यूम साहब के सुझावों को स्वीकार किया। भारतवासियों को बड़े से बड़े सरकारी पद मिलने लगे। कांग्रेस को सरकार अच्छी दृष्टि से देखने लगी और उसके सुझावों का सम्मान करने लगी। ह्यूम साहब तथा व्योमेशचंद्र बनर्जी के हर सुझाव को अंग्रेजी सरकार मानती थी और प्रत्येक सरकारी कार्य में उनसे सलाह लेती थी।
ह्यूम अपने को भारतीय ही समझते थे। भारतीय भोजन उनको अधिक पसंद था। गीता तथा बाइबिल को प्रतिदिन पढ़ा करते थे। उनके भाषणों में भारतीय विचार होते थे तथा भारतीय जनता कैसे सुखी बनाई जा सकती है और अंग्रेजी सरकार को भारतीय जनता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इन्हीं सब बातों को वह अपने लेखों तथा भाषणों में कहा करते थे।
वे कहते थे कि भारत में एकता तथा संघटन की बड़ी आवश्यकता है। जिस समय भी भारतवासी इन दोनों गुणों को अपना लेंगे उसी समय अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएँगे। ह्यूम लोकमान्य बालगंगाधर तिलक को सच्चा देशभक्त तथा भारत माता का सुपुत्र समझते थे। उनका विश्वास था कि वे भारत को अपने प्रयास द्वारा स्वतंत्रता अवश्य दिला सकेंगे।